भारत की जमीं पे न जाने कितने मुस्लिम अतातायियों ने आक्रमण किया, लुटा खसोटा, और चलते बने, और जो यहाँ बस गए वो इस्लाम के प्रतिनिधि की तरह व्यवहार करने लगे, आज ये बात किसी आम मुस्लिम से पूछो तो तपाक से मना कर देगा, वो सीधे कहेगा की भारत उसका भी देश है और उसे उससे प्यार है. सही है, कहीं से गलत भी नहीं, लेकिन देश को मानने वाले वहां की मूल संस्कृति को न माने तो क्या कहा जाएगा? भारत की भूमि तो चाहिए लेकिन संस्कृति नहीं, राम, कृष्ण, की जमीं तो चाहिए लेकिन लेकिन उनसे विमुख हो के, नमाज के लिए नानक का गुरुद्वारा तो चाहिए लेकिन उनसे विमुख हो के, दुर्गा पर्व में नाच- गाना डांडिया तो चाहिये लेकिन मूर्ति और संस्कृति से परहेज करके, ये बालात्कारी प्रवृत्ति नहीं? ये कुछ उस तरह का नहीं की दुश्चरित्र आदमी किसी स्त्री के शारीर पर तो नजर रखताहै, भोगना चाहता है लेकिन उसको अपनाना नहीं चाहता.
जब मै कहता हु की भारतीय मुस्लिम, मुस्लिम पहले है भारतीय बाद में तो मेरे मुस्लिम मित्रो को तकलीफ होती है सच स्वीकारने में। लेकिन शाही इमाम ने सिध्ध कर दिया की अधिकतर मुस्लिम किस सोच के होते है। मेरी 56 देशो में भाईओ वाली बात किसी मुस्लिम को नहीं कचोटना चाहिए।
शाही इमाम ने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री को बुलाया इतना तो ठीक था, उनका व्यक्तिगत मसला है, लेकिन साथ ही बयान देना की मोदी मुस्लिम उनके साथ नहीं है इसलिए नहीं बुलाया, ये दर्शाता की आज भी मुसलमान कुरआन शरिया को फालो करना चाहता है, बजाय की भारतीय संविधान के ? अन्यथा आज तक मोदी को सिर्फ क्लीन चिट ही मिली है, क्या वो सच में दोषी होते तो भारतीय मुसलमान ये सोचता है की भारत का संविधान सच में मुस्लिम के लिए इतना कमजोर है की वो उस पर विश्वाश न कर पाए? जबकी बलवे के समय तथाकथित मुस्लिम हितैषी पार्टी कोंग्रेस का शाशन था.
बुखारी के हरकत का खंडन करके इति श्री नहीं कर सकते भारतीय मुस्लिम हलाकि फिलहाल कोई करता भी नन्ही दिल से जब तक चारो तरफ से थू थू न होने लगे तो मज़बूरी बस उन्हें पथ्थर दिल से कहना पड़ जाता है की “हम इसकी निंदा करते है”, लेकिन सोचिये अन्तरराष्ट्रीय समाज में बुखारी ने क्या सन्देश देने की कोशिश नहीं की है की हम भारत के मुसलमान देश के दुश्मन पाकिस्तान को अपना मान सकते है लेकिन देश के रक्षक प्रधानमन्त्री को नहीं क्योकि वो एक गैर मुस्लिम है या तथाकथित गैर मुस्लिमो का प्रतिनिधित्व करता है, या कुरआन के उन लाइनों को वाय्व्हारिक रूप नहीं जिसमे ये लिखा है की किसी भी गैर मुस्लिम को अपना न मानो भले वो चाहे कितना भी भला हो, हितैषी है, लेकिन घर का नौकर उससे १०० गुना बेहतर है यदि वो मुसलमान है.
शाही इमाम भले ही पुरे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न करते हो, लेकिन हैं तो शाही इमाम, खासकर उस भारत में जहाँ का मुसलमान ये कहता है की उसके भाई ५६ देशों में फैले है? यहाँ के महापुरुष को मानना उसे उसके धर्म से अन्याय दीखता है लेकिन दुसरे देशो के रत्ती भर भाव न देने वाले मुस्लिम उसे भाई लगते है, खुद के देश का हिन्दू उसे काफिर दीखता है लेकिन मुस्लिम देशों के भाई उसके ५६ देशों में से एक है.
इन मुस्लिमो बस मेरी दो लाइने:-
ये जमीं हमारी है, हम यहाँ के नहीं,
तू हमारा तो है, लेकिन हम तेरे नहीं