कन्नड़ के मशहूर विद्वान का कुछ हत्त्यारों द्वारा हत्या कर दिया जाना किसी भी सभ्य समाज में किसी भी स्तर पर रखकर आकलन करना ही मुर्खता होगी, घोर निंदनीय कृत्य सिर्फ घोर निंदनीय ही हो सकता न की इस पर विचार विमर्श करना. किसी भी सभी समाज में हम एक दुसरे से कितने भी असहमत होने के बावजूद एक बात की सम्भावना हमेशा होती है की हम कम से कम असहमत होने के लिए सहमत हो अन्यथा समाज तमाम विकृतियों का गढ़ बन जाता ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से आजकल इस्लामिक देशो या स्टेटों के हालात है.
लेकिन उनकी हत्या हुई क्यों? किसने मारा उन्हें? क्या उनकी किसी से निजी दुश्मनी थी? हत्यारों का उद्देश्य क्या था? सब पर निगाह डाले तो बस एक बात छन कर सम्भावना बनाती है, जैसा की कुछ कलिबुर्गी जैसे पत्रकार या विद्वान कह रहें है, की कलिबुर्गी हिन्दू धर्म के मान्यत्वों को धर्मान्धता बताते थे, और इसी चिढ बस उन्हें किसी ने निशाना बनाया हो, शायद ये हो भी सकता है, चलिए इस बात को मान भी लें तो क्या वो हत्यारे प्रोफेशनल होंगे? यदि प्रोफेशनल है तो धार्मिकता के आधार पर हत्या की बात ही सरासर गलत है, यदि वो प्रोफेशनल नहीं है यानी वो हमारे आपके जैसे एक सामान्य इंसान है तो किस चीज ने उन्हें हत्यारा बनाया?
सिर्फ कलिबुर्गी का हिन्दू विरोधी होना? नहीं कत्तई नहीं. हिन्दू समाज शुरू से ही किसी भी धर्म के अपेक्षा जादा सहिष्णु रहा है, अयोध्या में रामजन्म भूमि पे बना बाबरी मस्जिद, बनारस में जबरन बना ज्ञानवापी या इस तरह के सैकड़ो मस्जिद जो किसी ज़माने में विधर्मियो के ताकत ओरके साथ उनकी असहिष्णुता का एह्साह कराता हुआ इस बात की गवाही है की आज संख्या और राजनितिक दृष्टि से हिन्दू ताकतवर होते हुए भी वो अन्य धर्मो की तरह ताकतवर बनते ही विधर्मियों या विधर्मियों के स्थलों को सिर्फ धर्म नाम पर अपना निशाना नहीं बनाता. तो कौन सी चीज लोगो को कलिबुरिगी या उनके जैसों की हत्या को मजबूर कर रही है? एसा क्या कारण है की हिन्दू भी अब असहिष्णु हो रहे हैं? कौन उकसा रहा है उन्हें? क्या हिन्दुवों की एक जमात कट्टर हो रही है? तो क्यों हो रही है? कारण ढूढना होगा.
हिन्दू शुरू से ही अपनी सहिष्णुता का मोल चुकाता आया है, सैकड़ो सालों से, कभी तुर्कों ने तो कभी मुगलों ने इनकी सहिष्णुता का फायदा उठा इनके धर्म संस्कृति यहाँ तक बहन बेटियों तक को नहीं छोड़ा, सैकड़ो हजारों खंडित मंदिरों के अवशेष, इतिहासों दर्ज लेख इस बात का गवाह है जो किसी भी प्रकार से झुठलाया नहीं जा सकता है. सैकड़ो साल पहले की बात छोड़े, अब सीधे आजादी के समय सन १९४७ पे आ जाते हैं, यदि हिन्दू धर्म भी उतन ही कट्टर रहा होता जितना की गैर हिन्दू धर्म तो पाकिस्तान की तरह ही एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना भी उसी समय हो जानी चाहिए थी. उस समय या तो दो देश बनते एक पकिस्तान और दूसरा हिन्दुराष्ट्र –हिन्दुस्तान, या नेतावों की जिद सेकुलर देश बनाने की ही होती और हिन्दू उतना ही कट्टर होता जितना विधर्मी तो दो की जगह तीन राष्ट्र बनते, हिन्दू भी अड़ जाते की जब पाकिस्तान बनाया तो तुम सेकुलर राष्ट्र भी बना लो लेकिन हमें हमारा हिन्दू राष्ट्र दे दो, लेकिन बने सिर्फ दो देश, एक इस्लामिक पाकिस्तान और दूसरा धर्म निरपेक्ष हिन्दू राष्ट्र, एक पक्ष को उसका हिस्सा तो मिल गया, लेकिन दूसरा पक्ष, जिसको वो अपना हिस्सा समझता रहा है, उसके साथ इस हद तक छलावा हुआ की आज भारत को हिन्दुस्तान कह दो तो गैरहिन्दुवों की भुजाएं फड़कने लगाती है, जो की बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है, और ये सब एक तरफ फिर से हिंदुवो को संगठित कर रही है. ये तो थी सन ४७ की बात का एक छोटा सा नमूना, एक जीता जागता उस देश का उदाहरण जिसमे हम रहते हैं.
अब हम सीधे आज के हालात में आ जाते है. आज क्या घट रहा है हमारे आस पास? रांची हो बनारस, या लखनऊ हो या कश्मीर, हिन्दू लड़कियों को झूठे प्रेम जाल में फांस इस्लामीकरण करना आज आम बात हो गयी है जिस पर बहस भी करना कलिबुर्गी जैसो विद्वानों और पत्रकारों को साम्प्रदायिकता लगता है. भारतीय संस्कृति के वाहक राम के जन्म भूमि की मांग करना भी साम्प्रदायिकता है, जबकि विधर्मी दुसरे देश के संकृति के वाहक बाबर हो या मोहम्मद उसके नाम पर जब तब अपने को सेकुलर और हिन्दू को साम्प्रदायिक बताते आ रहें है. हम सभी भारत वासियों को चाहे वो किसी भी धर्म सम्प्रदाय का हो, एक बात समझनी ही होगी की सेकुलर देश में आप कोई भी धर्म तो अपना सकते हैं, आप उस धर्म की संस्कृति भी अपना सकते हैं, लेकिन तब तक जब तक इस भारत देश की संस्कृति पे हमला न हो या उसका अतिक्रमण न हो. इस देश पैदा हुए महापुरुष ही इस देश के संस्कृति के वाहक है, चाहे वो राम हो या कृष्ण, या नानक या बुध्ध. मोहम्मद या इसा आपके धर्म के नुमाइंदे तो हो सकते है लेकिन वो भारत के संकृति के वाहक नहीं. एक और बात समझनी होगी की भारत में पैदा होने वाला हर महापुरुष/ वीर भारत के संकृति का वाहक है चाहे वो किसी भी धर्म में पैदा हुआ हो, यां यहाँ की संकृति में विश्वाश रखता हो. हम अब्दुल कलाम, जॉन दयाल तक को तो छोडो, अपने अगल बगल के रशीद, गफूर, डिसूजा भी हमारे भारतीय संस्कृति के वाहक है क्योकि भारत में पैदा हुए और उनका भी इस देश को आगे बढाने में जादा या मामूली योगदान है, लेकिन तब तक जब तक इसा या मोहम्मद के नाम पर राम, कृष्ण बुध्ध, नानक को गाली नहीं देते और उनका सम्मान संकृति के आधार पर दिल में स्थान देते हों.
लेकिन एसा नहीं है, क्यों नहीं है? एसा होता बाबरी खुद बा खुद मुसलमानों द्वारा पहल कर इस देश के संस्कृति के पोषक राम के मंदिर बनाने को दे दिया जाता, लेकिन नहीं, ये इनकी जिद है, उस मोहम्मद की आड़ में जो इनके धर्म का नुमाइंदा है इस देश की संस्कृति राम के कीमत पर.
उसी धर्म के नाम पर यदा कदा हजारो अपने को याकूब कहते है, तो कोई अपने को आई एस आई, और यहाँ तक की संघ को निशाने पे लिया जाना भी इस बात का गवाह है. और सारी चींजे हिन्दुवों कहीं न तो कचोटती है, अनजाने में या अपने कट्टरपन से विधर्मी हिंदुवो को अपने से नफरत करने के लिए पहले उकसाते है.
अब समय बदल चूका है, विधर्मियों की असहिष्णुता हिंदुवो की सहिष्णुता भी भंग करने पे अमादा है, अब हिन्दू भी अपने संस्कृति को पहचानने लगा है, इसका जीता जाता सबुत नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार है, ध्यान रहे मै हिन्दू धर्म नहीं संस्कृति की बात कर रहा हु. मंदिर भारत के धर्म ही नहीं बल्कि संस्कृति का भी हिस्सा है, वही संस्कृति जिसमे अमरनाथ के लाखो यात्रिं कश्मीर के लाखो का महीनो तक पेट भरते है फिर भी बिचारों को विधर्मियों के पत्थर खाने पड़ते है, और इन्ही मंदिर, मूर्तियों का विरोध करने वाले आज प्रगतिशील / प्रोग्रेसिव और विद्वान कहलाते है. मान लीजये कभी कोई संघठन हिन्दू राष्ट्र के लिए खड़ा हो जाता है तो ये प्रगतिशील किस मुह से और किस तर्क से उसे गलत ठहराएंगे? कौन सी धर्म निरपेक्षता की दुहाई देंगे? जो बात बात पर आज अलगाव वादियों के साथ है, जो इस देश के संस्कृति पे प्रहार करने वालों के साथ है, और चार्ली हेब्दों के कार्टूनिस्टों के हत्यारो पे सहानुभूति भी लुटाते हैं की किसी की भावनावो को आहत नहीं करना था, और तुर्रा ये की प्रोग्रेसिव/ विद्वान का तमगा लिए घूमते है और यही सच्चाई हम जैसे सीधे सीधे कह दे तो साम्प्रादायिक हो जाते हैं.
विध्रामियो के कट्टरता और भारत के संस्कृति से कटाव के साथ इस संस्कृति के प्रति दुर्भावना रखना के साथ साथ उन्हें पोषित करने वाले इस तरह के विद्वान और प्रगतिशील कहलाने वालों की दोहरी मानसिकता ही धीरे धीरे हिन्दुवों के कुछ लोगो को ही सही लेकिन विधर्मियो के सामान ही असहिष्णु और कट्टर बना रहें है.
शायद किसी ने ठीक ही कहा है “जो बोया पेड़ बाबुल का तो आम कहाँ से होए”.
सादर
कमल कुमार सिंह