“कर्मण्येवाधिकार्स्ते, माँ प्याजासु कदाचने” अर्थात कर्म किये जा प्याज की चिंता न कर.
आज भारत में श्री कृष्ण होते तो शायद यही उनका मूल मन्त्र होता, जो वो संसद के साउथ या नार्थ ब्लोक की तरफ मुह कर के उवाच रहे होते. लेकिन उनको सुनने के लिए न वहां मोदी होते न, ही प्रणव मुखर्जी, हाँ केजरीवाल जरुर उन्हें तवज्जो दे के किसी प्याजमई अनशन पे बिठा देते, बाद में उनको भी योगेन्द्र से योगेन्द्र यादव बना देते.
वो बात अलग है, की वो आज भारत में आना भी चाहे तो नहीं आ सकते, अपने जन्मभूमि मथुरा, और खेलगाँव वृन्दावन पर भी पे भी क्लेम नहीं कर सकते, उत्तर प्रदेश के समाजवादी उन उनको भी किसी न किसी भैंसिया चाल में फसा ही देंगे, या आजम खान उनको अपनी भैंस चराने के लिए कह देंगे, जिसपे यादव श्रेष्ठ के अन्युयाई समस्त उत्तर प्रदेश के यादवं को भी कोई आपत्ति नहीं होगी, यादवराज के लिए कृष्ण का होना जरुरी नहीं बल्कि मुलायम का होना अति आवश्यक है, इन यादवों का बस चलें तो मुलयम को ही कृष्ण का मुलायामावतार घोषित कर बांके मुलायमि मंदिर बनवा दें ब्रज में.
खैर मुद्दे से भटकना ठीक नहीं सो केजरीवाल निर्मित लालुवात्मक इमानदारी का सिप पी के मै भी इमानदारी से मुद्दे पे ही रहूँगा. और मुद्दा है प्याज. चमत्कारी प्याज, परम प्रतापी प्याज, प्रभावी प्याज, अफगानिस्तान प्याज, दो किलो का प्याज. भारतीय राजनीति के नस नस में प्याज बहता है, प्याज वो चीज है जो रूठ जाए तो राहू से भी खतरनाक किसी के भी नेता को चित कर सकता है, नेता का “ने” और “ता” दोनों गायब कर सकती है.
आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति का प्याजातीहास प्याजात्मक अक्षरों में लिखा जाएगा. भारतीय राजनीति में प्याज का वही स्थान है, जनता के तमाम राहुवों पे यदि प्याज की वक्र दृष्टि पड़ जाए तो उनकी गद्दी उन्हें छोड़ उन्हें इंसान बनने पर मजबूर कर फिर से जनता के पास गली गली में दौड़ा देती है. किसी भी मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री से ताकतवर है प्याज. गली के आवारा लौंडे जिस तरह किसी इज्जतदार शर्मा जी, वर्मा जी के कोंवेंट एजुकेटेड लड़की के इर्द गिर्द मडरातें है उसी तरह हमारे विपक्ष के नेता प्याज के इर्द गिर्द मडराने के अलवा कुछ सोच भी नहीं सकते.
देश में कोई भी समस्या हो लेकिन इनकी और इनके समर्थकों की समस्या है प्याज, देश में बाड़ आये कोई बात नहीं, प्याज, देश पे बम फूटे कोई बात नहीं, प्याज, देश भवानी के भक्कड़ में जाए कोई बात नहीं, प्याज. ये सरकार को प्याज के आंसू रुलाना चाहते है. उसके लिए चाहे उन्हें समस्त, चराचर जगत के प्याज का अपहरण कर अपने हरम में ही क्यों न रखना पड़े. बालिवूड के बड़े स्टार तुषार कपूर टाइप का हर बड़ा विपक्षीय नेता को प्याज उस देहाती छोटे दशरथ मांझी के पहाड़ की तरह दीखता है जिसको क्रैक कर दें तो वो अपनी डिल्लो डिल्लो डार्लिंग कुर्सी तक पहुँच सकते है, एसा वो मानते है.
विपक्षीय नेता तो नेता, प्रबुद्ध और जहीन का बिल्ला लगाने वाले पत्रकारों की नजर में भी प्याज किसी भी मामले में कम नहीं है, हाँ कभी कभी राधे माँ या आशाराम जैसे टोपिक के बीच में प्याज को बहस का मुद्दा बनाना थोड़ा कन्फ्यूज जरुर कर देता है इनको, लेकिन वास्तविक बात ये है की इनके दिल में भी प्याज बसता है, प्याज सिर्फ नेता की कुर्सी ही नहीं बल्कि टीवी चैनलों को जबरजस्त टी आर पि भी दिलाने में सहायक है, क्योकि हमारी जनता भी आलू प्याज की तरह ही है जिसको जब चाहे कोई नेता अपने राजनीती के किचन में पका बेतरीन और लजीज वोट डिश बना खा सकता है, सो जनता भी बड़े चाव से “चावल” बहस को समर्थन देती है. आप कह सकते है की प्याज मीट या सब्जी की नहीं बल्कि भारतीय राजीनीति, टी वी चैनल और “चावल” जनता की भी लाइफ लाइन है. सरकार को वास्तव में यदि अपनी सरकार सुचारू रूप से चलानी है तो पंच वर्षीय योजना की जगह “प्याजवर्षीय” योजना चलानी चाहिए.
शुक्र है की प्याज बस भारतीय राजनीति तक ही सीमित है, अन्यथा अगला विश्व युद्ध शायद प्याज के लिए होता.
तवज्जो मिली न किसी को, दुनिया में इतने गम हुए.
बुरा क्या जो हमें भी मिलता, हाय हम प्याज न हुए.
सादर
कमल कुमार सिंह