“आप” का झाड़ू चल गया.
आश्चर्यजनक लेकिन सत्य जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी उससे भी कही जादा आश्चर्यजनक तरीके से आपा का झाड़ू जिस कदर देलही के आसमान में फैला वो सच में हैरत अंगेज है. खुद अरविन्द केजरीवाल ने भी इसकी कल्पना नहीं की होगी. तो इसका क्या मतलब लगाया जाए? क्या मोदी का चार्म खो गया? क्या मोदी की लहर अरविन्द केजरीवाल के खेमे में शिफ्ट हुआ?
आईये मंथन करें २०१३ के डेल्ही विधान सभा चुनाव में आपा को २८% वोट मिले और इस बार ५०% वोटो के साथ पताका लहरा दिया जबकि बीजेपि को पिछले और इस बार के दोनों विधान सभा चुनावों में ३३% वोट ही मिले, यानी की बी जेपी का वोट बैंक में किसी की सेंध नहीं लगी भले हो इस बार सीटों का दहाई भी नहीं पार कर पाए जबकि आपा को ६०+ सीटों पर अभूतपूर्व सफलता मिली.
तो ये कौन है जिन्होंने आपा का प्रतिशत २८ से ५० कर दिया? और ये फ्लोटिंग वोट भाजपा में क्यों नहीं जुड़ा, ये सोचने वाली बात है. भाजपा का ये चुनाव हारने में कई कारण है, सारी पार्टियों के अपने अपने वोट बैंक होते हैऔर वो पार्टियाँ अपने वोट बैंको का ख्याल भी रखती है, जबकि भाजपा सत्ता में आते ही अपने कोर वोट बैंक से ध्यान हटा फिर से कोंग्रेस के तर्ज पर तुष्टिकरण की राजनीति करने लगती है और अपने कोर वोटर को भी नाराज करती है. जबकि एक वर्ग है एसा है की भाजपा को कभी वोट नहीं करेगा भले भाजपा या मोदी आपनी जान निकल के दें दें, ये सारे कोंग्रेस के वोटर कोंग्रेस से हटकर आपा की तरफ मुड़ गए जबकि अन्य दल, जिनका लोकसभा में भाजपा ने सफाया कर दिया वो भी केजरीवाल के समर्थन को आगे आये और परिणाम सामने है.
इस चुनाव के दो पहलू अहम् है, पहला की केजरीवाल को ये चुनाव जितना बहुत ही जरुरी था, ठीक उसी खरगोश की तरह जो अपनी जान बचाने के चक्कर के जी जान से रेस लगाता है, ये रेस हारने का मतलब की वो शिकारी की चपेट में जाएगा और अपनी जान गवां बैठेगा. केजरीवाल ये चुनाव हार जाते तो आपा पर अस्तिव का संकट मडराता, जो की लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होता, इसी के मद्दे नजर उन्होंने बिजली पानी जैसे जमींन से जुदा मुद्दे उठायेऔर जनता की नजर में भी सकारात्मक छवि बनाने में सफल रहे. वहीँ भाजपा उस खरगोश के शिकारी की भूमिका में थी जिसे खरगोश का शिकार करना था, न मिलने पे उसके न अस्तिव पे संकट न था न है, वो पहले ही देश विजेता बना बैठा हुआ है, उसके लिए उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य प्रमुख है जहाँ से राज्य सभा में सबसे जादा सीटें मिलने पर वो २०१७ से हर तरह का कानून पास करा सकतें है, और इसी समय पर सारी मिडिया देलही पे केन्द्रित रहेगी, यानि मोदी बिना किसी शोर-शराबे अपना हर तरह का काम निपटा सकते है, कुछ बुधजिवी तो ये भी कह रहे की भाजपा जानबूझ कर ये चुनाव हारी है ताकि मिडिया का पूरा ध्यान देल्ही के केजरीवाल पर ही केन्द्रित हो और वो सेफ जोंन में रहें, और अब देखना ये है की केजरीवाल अपने कितने वादे पुरे न कर मिडिया को अपने में उलझाए रखते है.
आने वाले दिनों में अरविन्द यदि अन्य राज्यों में चुनाव लड़ते हैं तो शायद उन्हें मुह की खानी पड़े, क्योकि तब तक देश को देलही की हाल पता होता रहेगा, वहीँ दूसरी तरफ क्षेत्रीय पार्टिया भी उन्हें मजबूत टक्कर देंगी जो देलही के चुनाव केजरीवाल के साथ थी सिर्फ भाजपा को हराने के लिए थीं न की केजरीवाल को जिताने के लिए.
वास्तव में देलही का पूरा चुनाव ही केजरीवाल को जिताने के लिए नहीं बल्कि भाजपा को हराने के लिए हुआ था, अब आगे क्या होता है ये तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन देखने वाली बात होगी की केजरीवाल से देलही के जनता का मोह कब भंग होता है, क्योकि बड़ी जीत के साथ ही उससे कई गुना जिम्मेदारी भी कंधे पे पड़ती है जिसको ढोना आसान नहीं, और यदि ये काम केजरीवाल कर लें जाते हैं, तो निश्चय ही राजनीति में बदलाव होगा, जो देश हित में ही होगा चाहे जिस पार्टी के जरिये हो.
सादर
कमल कुमार सिंह
१० जनवरी २०१५